शनिवार, 17 दिसंबर 2011

सुनकर बड़ी अजीब लगी
ये गरीबी की दास्ताँ,
काम मिला ऊसको
वो भी अमीरों के पास|
                          रोहित कुमार

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

मोहब्बत मे इंसा क्यों इतना मजबूर हो जाता है,
रहते हुवे शहर  मे और शहर से दूर हो जाता  है| 
आदमियत की नियत पे शक होता है मुझे अब,
दिल तोड़ता है सरेआम और बेकसूर हो जाता है|
उसकी गली  से निकलते सर झुक जाता है खुद,
उसको खुद के खुदा होने का गुरूर हो जाता है|
सरेआम बिकती है बिना कायदों के मोहब्बत यहाँ,
वफ़ा के बाजार मे दिलवाला मजदूर हो जाता है|
खाक मै मिलाके वसीयत अपनी इश्क करते है लोग,
ये खबर फैली आज कल तो वो मगरूर हो जाता है|
तेरे कसीदों  के लिए मै शायर बन बैठा ये साकी,
रोज पीयू कुछ नहीं दिल जले तो सुरूर हो जाता है|
                                                                           ..रोहित कुमार