मंगलवार, 15 नवंबर 2011

मै तुझे पार में मिलूँगा....

ना घर, ना शहर
और न बाज़ार में मिलूँगा,
मै तो खोया हुवा बस
अपने ही संसार में मिलूँगा|
किसी के मानिंद
अपनी ही नस्ल का दुश्मन मै नहीं,
गरीब की दुवाओं में कही,
कही  बच्चो के प्यार में मिलूँगा |
ये दुनिया मजहबों के भरोसे
नहीं चली कभी यार मेरे,
मिल सका  कभी तो
संस्स्कारों  के उद्दार में मिलूँगा|
तुझे करनी है कश्ती तो तू कर ले
मुझे छोड़  दे,
डूबने जा रहा हूँ  अभी
मै तुझे पार  में मिलूँगा|
इस फकीरी की कीमत
 क्या बताऊ तुझे अभी,
दुनिया बदल चुकी होगी
तब बिचार में मिलूँगा |
जो मजहब तोड़ने की कोसिस करे
 मेरे हिंदोस्ता को,
 उस धर्म को बेच दूंगा
मै इसी ब्योपार मे मिलूँगा|
मोह्हबत तो मैने भी करी है
पर मै ताजमहल नहीं बनाता,
कभी माँ के क़दमों मैं
 तो कभी किसी गरीब की झोपड़ी के आधार मे मिलूँगा|
सीमाओं के झूठे  तनाव का
मै सिपाही नहीं,
मोह्हबत के वास्ते हो  जंग
तो धुवाधार मै मिलूँगा|
                                                 रोहित....

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